सबला बन जाना चाहती हूँ
तोड दिवारों से रिश्ता
अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ
पँख बना कर ओडनी को
आकाश में उड जाना चाहती हूं
निकल बन्द सिपी से बाहर
कुछ कर दिखाना चाहती हूँ
पाना चाहती हूं अपना आस्तित्व
अपनी पहचान बनाना चाहती हूं
पढ लिख कर मन्जिल पाऊं
स्वावलँबी बन जाना चाह्ती हूँ
न जीऊँ किसी के रहम पर
खुद सपने सजाना चाहती हूँ
पुरुष की नियत नारी की नियती
ये भ्रम मिटाना चाहती हूँ
मैं इक अबला नारी बस
सबला बन जाना चाहती हूँ
7 comments:
वाह क्या खूब कही है निर्मला जी आपने.. वैसे नारी अब अबला नहीं रही, इतनी सबल हो चुकी है की पुरषों की दुनिया को चुनौती दे रही है.
नए साल की बधाई..
applaude applaude!!
Great!!! Amazing !!!
Awesome...superb
round of applause...
:)
खुदा आपकी आवाज़ बुलंद करे और आप की भावनाओ को अपने हृदय मे स्थान दे बस इतना ही कहना चाहूँगा |
माँ सरस्वती आपकी रचनाओं मे अपनी कृपा यूँ ही बनाए रखे.........
Bohot sundar hai:-) :-) :-)
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